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अशोक चक्रधर(Ashok Chakradhar) की हास्य कविताओं को मंच पर बहुत ही पसंद किया जा रहा है और इसीलिए आज एक बार फिर आप लोगों तक प्रसिद्ध हास्य कवि अशोक चक्रधर (Ashok Chakradhar) की एक हास्य रचना लाएं है जो वनों को बचाने का संदेश देती है. यह हास्य रचना ना सिर्फ मन में गुदगुदी लाती है बल्कि यह कविता हमें एक पाठ भी सिखाती है कि यदी हम वनों को यूं ही बर्बाद करते रहेंगे तो जल्द ही पछताएंगे भी.
लकड़ी से तगड़ी आरी
जंगल में बंगले
बंगले ही बंगले
नए नए बनते गए
बंगले ही बंगले।
बंगलों में चारों ओर
जंगले ही जंगले
छोटे-छोटे बड़े-बड़े
जंगले ही जंगले
लकड़ी ही लकड़ी,
चीरी गई पाटी गई
लकड़ी ही लकड़ी।
लकड़ी ही लकड़ी
फ़र्शों दीवारों में
लकड़ी ही लकड़ी।
मारी जी मारी,
लकड़ी से तगड़ी थी
आरी जी आरी।
आंखें जी आंखें,
कटती गईं कटती गईं
शाखें ही शाखें।
बंगले ही बंगले,
जंगल जी होते गए
कंगले ही कंगले।
भूरा भूरा रंग ले,
जंगल जी कंगले
या बंगले जी कंगले?
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