Hasya Kavita
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हाल ही में एक कविता पढ़ी जिसे पढ़कर लगा कि यह वह चीज है जिसे शायद आज हम आम आदमी का दर्द मान सकते हैं. आज आम आदमी की क्या व्यथा है इसे समझ पाना ज्यादा मुश्किल काम नहीं है.
पढिएं यह हास्य कविता और जानिए आम आदमी का दर्द. कविता के मर्म को जरा गौर से समझिएंगा.
ना जानें इंसान क्या चाहे : हास्य कविता
कैलैंडर की तरह महबूब बदलते क्युं हैं
झूठे वादों से ये दिल बहलते क्युं हैं ?
फ़िर दुर्योध्न के आगे हाथ मलते क्युं हैं ?
औरों के तोड डालते हैं अरमान भरे दिल,
तो फ़िर खुद के अरमान मचलते क्युं हैं ?
फ़क़्त पत्तों के लरज़ने से ही दहलते क्युं हैं ?
न जाने आस्तीनों मे सांप पलते क्युं हैं ?
अम्मा ! ये सूरज शाम को ढलते क्युं हैं ?
नाखूनों से ही ज़खम सहलते क्युं हैं ?
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